The way I like, The way I thought, The way I judge, IS THE WAY OF LOVE, so be my friend, be a part of the train, because this is the way, to get in the plane, the plane of thoughts, the plane of imaginations, the plane of creativity, to get in the land of divine, where I have bowed a seed, the divine seed.
Sunday, 19 August 2012
Thursday, 16 August 2012
Wednesday, 15 August 2012
Tuesday, 14 August 2012
Sunday, 12 August 2012
कविता एक सोच या रचना
यह शब्दों की है नुमाइश,
शब्दों से बना फ़साना,
जब शब्द हो जुबा पे,
यूँ ठहरता नहीं दीवाना.
हम डूब से जाते है,
जब अर्ज हो किन्ही का,
यह शुष्क शांति है,
जो बहता नहीं हवा सा.
यह सुस्त लब्जो की है शिकायत,
जो ठहरती नहीं अधर पे,
जब सुर्ख होंठों की हो गुस्ताखी,
यूँ बनता नहीं फ़साना.
हम चल से बस पड़े है,
उन सुन्न रास्तों पे,
जहाँ से है गुजरता,
शब्दों का काफिला है.
हम सोच में है डुबे,
ठहरे से एक बिंदु पे,
जब शब्दों की हो परिधि,
तब क्या शौक ठहरने का.
मैं ठहर सा यूँ जाता,
जब कोई शब्द मुझे बुलाता,
एक होड़ की चाहत में,
मैं लब्जों से गुनगुनाता.
यह होड़ की बातें है,
चाहत है यह किसी का,
जो अर्ध में है डूबा,
यह अर्थ है उसी का.
यह तर्क की बातें है,
अर्थ है उन्ही से,
जो संदर्भ के है अभिलाषी,
यह शब्द है उन्ही से,
मैं तप के इस पटल पर,
बैठा बन कर साधक,
वह मार्ग ढूंढता हूँ,
जो ले जाये फलक तक.
साधक ही एक भगता है,
साधक ही है सरोकारी,
साधक ही समझता है.
मैं अथक यहि पे बैठा,
शब्दों से जुड़ गया हूँ,
अर्थ की चाहत में,
अर्थात तक पहुँच गया हूँ.
यह सोच ही आविष्कारी,
सोच में गहनता है,
शब्द तो हैं मोती,
जिसे संदर्भ पिरोता है,
यह शब्दों की एक कड़ी है,
या स्वयं रचना है,
यह संदर्भ की चाहत है,
या सन्देश की कल्पना है.
हम स्वयं ही हैं जननी,
दो टूक शब्द पिरोंते हैं,
फिर अर्थ की समझ में,
शब्दों से उलझते हैं,
यह सोच की कड़ी है,
संदर्भ का है संयोजन,
यह तर्क की लरी है,
अर्थ का है उद्घोसन.
मैं तप के इस पटल पे,
बैठा बन कर साधक,
संदर्भ की चाहत में,
अर्थात तक पहुँच गया हूँ.
कविता लेखक-प्रिन्स कुमार.
Saturday, 11 August 2012
Sunday, 5 August 2012
यह रात की मायूसी है, जो अपने सबाब पर है. यह धीरे-धीरे अपने उन्माद में काली चादर ओढ़े गहनता की ओर बढ़ रही है. यह उन्माद कुछ ऐसा है जो अपने बस में नहीं होता, प्यास बढ़ता जाता है और पानी घटती जाती है, परन्तु हमें इंतजार उस पल का होता है जब हम शून्यता की स्थिति में आनंद की छोड़ तक जाते है. यू कहिये की
हम उजाले की सामना करने की बल पाले उस अचेतना की ओर जाने को तैयार हो रहे है जो एक निश्चित कड़ी है जिसमे हम जकड से चुके है. यह बस एक संजीवनी है जो हमें दृढ़ता से आने वाले कल और कर्मो की सामना करने का बल देता है.
यह मायूसी और उसके साथ आने वाली शून्यता निश्चित है परन्तु हमने कभी इस शून्यता का संदर्भ न सीखा. हमने इस अचेतना का कारण न जाना, और संवाद की होड़ में उस निरर्थकता की ओर बढे जा रहे है जो उजाले की भाँती अशान्ति, होड़, लाभ, रोजगार, नज़ारे और बदलाव की कुंजी से हमें ही आप संवाद के रूप में बदल दिया है. तात्पर्य यह नहीं की हम उस समय या कर्मो का भोगी बन गए है जो पक्षों में बंट गए है, बल्कि सच्चाई यह है की हम उस पक्ष को भूल गए है जो हमारे आत्मा और चित को शांति प्रदान करता है. यह पक्ष हमारे परिद्रिश्यता को उजागर करता है. यह विश्लेष्ण की उस छवि को साक्ष्य करता है जो हमारी आन्तरिक चेतना से हमें रु-बरु करवा दे, परन्तु हम पर अचेतना हावी है, हम धीरे-धीरे अचेतना को महसूस करते है और रात की मायूसी हमें शून्यता की ओर ले जा रही है.
लेखनी -प्रिन्स कुमार
हम उजाले की सामना करने की बल पाले उस अचेतना की ओर जाने को तैयार हो रहे है जो एक निश्चित कड़ी है जिसमे हम जकड से चुके है. यह बस एक संजीवनी है जो हमें दृढ़ता से आने वाले कल और कर्मो की सामना करने का बल देता है.
यह मायूसी और उसके साथ आने वाली शून्यता निश्चित है परन्तु हमने कभी इस शून्यता का संदर्भ न सीखा. हमने इस अचेतना का कारण न जाना, और संवाद की होड़ में उस निरर्थकता की ओर बढे जा रहे है जो उजाले की भाँती अशान्ति, होड़, लाभ, रोजगार, नज़ारे और बदलाव की कुंजी से हमें ही आप संवाद के रूप में बदल दिया है. तात्पर्य यह नहीं की हम उस समय या कर्मो का भोगी बन गए है जो पक्षों में बंट गए है, बल्कि सच्चाई यह है की हम उस पक्ष को भूल गए है जो हमारे आत्मा और चित को शांति प्रदान करता है. यह पक्ष हमारे परिद्रिश्यता को उजागर करता है. यह विश्लेष्ण की उस छवि को साक्ष्य करता है जो हमारी आन्तरिक चेतना से हमें रु-बरु करवा दे, परन्तु हम पर अचेतना हावी है, हम धीरे-धीरे अचेतना को महसूस करते है और रात की मायूसी हमें शून्यता की ओर ले जा रही है.
लेखनी -प्रिन्स कुमार
Saturday, 4 August 2012
जब कभी ओट से इठलाती बेलब्ज़ तेरी याद आती है ,
जब कभी पत्तो की फरफराहट साज बनाती है,
जब कभी पानी की बुँदे ताल सजाती है,
जब इस सुने से मन में पंखो की फरफराहट भरी आवाज घर कर जाती है,
जब इस मन की पटल पर इक कौंधती पर खामोश सन्नसन्नाहट सी छाती है,
तब बस उनकी याद आती है, याद आती है,
वह अपना घर, वह आजादी,
खुली हवा में यार्रों संग मस्ती,
तालाब के मुहाने पर जाना, कंकर फेक यादों को संजोना,
कागज की नाव की कस्ती,
बारिस का मौसम और बूंदों का सुर,
दोस्तों संग नंगे पाँव की दौड़,
यह बेलब्ज़ तेरी याद दिलाती है,
सुने मन पटल में पंखो की फरफराहट भरी आवाज घर कर जाती है,
तब इस मन की पटल पर फिर खामोश सन्नसन्नाहट सी छा जाती है,
क्यों वह पल याद आती है, याद आती है.
लेखन------ प्रिंस
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