Sunday 12 August 2012

कविता एक सोच या रचना  

यह शब्दों की है नुमाइश,
शब्दों से बना फ़साना,
जब शब्द हो जुबा पे,
यूँ ठहरता नहीं दीवाना.

हम डूब से जाते है,
जब अर्ज हो किन्ही का,
यह शुष्क शांति है,
जो बहता नहीं हवा सा.

यह सुस्त लब्जो की है शिकायत,
जो ठहरती नहीं अधर पे,
जब सुर्ख होंठों की हो गुस्ताखी,
यूँ बनता नहीं फ़साना.

हम चल से बस पड़े है,
उन सुन्न रास्तों पे,
जहाँ से है गुजरता,
शब्दों का काफिला है.

हम सोच में है डुबे,
ठहरे से एक बिंदु पे,
जब शब्दों की हो परिधि,
तब क्या शौक ठहरने का.

मैं ठहर सा यूँ जाता,
जब कोई शब्द मुझे बुलाता,
एक होड़ की चाहत में,
मैं लब्जों से गुनगुनाता.

यह होड़ की बातें है,
चाहत है यह किसी का,
जो अर्ध में है डूबा,
यह अर्थ है उसी का.

यह तर्क की बातें है,
अर्थ है उन्ही से,
जो संदर्भ के है अभिलाषी,
यह शब्द है उन्ही से,

मैं तप के इस पटल पर,
बैठा बन कर साधक,
वह मार्ग ढूंढता हूँ,
जो ले जाये फलक तक.

यह सोच की तपश्या है,
साधक ही एक भगता है,
साधक ही है सरोकारी,
साधक ही समझता है.

मैं अथक यहि पे बैठा,
शब्दों से जुड़ गया हूँ,
अर्थ की चाहत में,
अर्थात तक पहुँच गया हूँ.

यह सोच ही आविष्कारी,
सोच में गहनता है,
शब्द तो हैं मोती,
जिसे संदर्भ पिरोता है,

यह शब्दों की एक कड़ी है,
या स्वयं रचना है,
यह संदर्भ की चाहत है,
या सन्देश की कल्पना है.

हम स्वयं ही हैं जननी,
दो टूक शब्द पिरोंते हैं,
फिर अर्थ की समझ में,
शब्दों से उलझते हैं,

यह सोच की कड़ी है,
संदर्भ का है संयोजन,
यह तर्क की लरी है,
अर्थ का है उद्घोसन.

मैं तप के इस पटल पे,  
बैठा बन कर साधक,
संदर्भ की चाहत में,
अर्थात तक पहुँच गया हूँ.

कविता लेखक-प्रिन्स कुमार. 

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